विजय नगर कौ एक राजा अपने महल में चित्तर छपवानौ चाहरौ तो बानै एक चित्तरकार नियुक्त कर दियौ। बानैइत्तर बना दिये। जानै भी चित्तर देखे सबनैय भौत बढ़िया लगे लेकिन तेनालीरामै कछु संका लगी। एक चित्तर की पिरस्ठ भूमि में अलग नजारौ। फिर बानै सीधे स्वभाव ते पूछी जाकौ दूसरौ पक्छ कहाँ है। याके अंग कहाँ है। राजा नै हँस कै जबाब दियौ। तू इतनौ भी न जानै इनकी कल्पना करनी चहिए। तो तेनालीराम नै मुँह बुरौ सौ करतौ कहा तो चित्तर ऐसे बनते हैं मैं समझगौ। फिर कछू दिना डटकैं तेनालीराम राजा के ढिंग गयौ और राजा ते कही मैं कई महीना ते चित्तरकला सीख रहूँ आपकी सलाह होतो मैं राज महल की दीवारों पै चित्तर बना दूँ। राजा ने कही ईतो बढ़िया बात है तेनालीराम नै पहले चित्तर नै पै सफेदी पोती और उनकी जगह नय- नये चित्तर बना दिये। एक पाँम कहाँ, एक आँख कहाँ, एक ऊँगली कहीं ऐसे ही बानै पूरी दीवार पै सरीर के सबरे अंग बना दिये। फिर बानै राजा कूँ बुलावे कौ न्यौतो दियो। राजा ऐसे चित्तरनैय देखकैं रिसियागौ। राजा नै कही तस्वीर तौ एक भी नाय। तेनालीराम नै कही चित्तरनमें बाकी चीजों की कल्पना करनी पड़ै। आप नै मेरो सबते बढ़िया चित्तर तो अभी देखो ही नाय। यह बात कहकैं राजा एक खाली दीवार के ढिंग लैगौ बा दीवार पै कछूँ हरी- पीरी लकीरें बनी हुई थीं। तो राजा चिढ़ कैं बोलौ ईतो घास खाती गाय कौ चित्तर है। लिकिन गाय कहाँ है। तेनाली बोलो गाय घास खाकैं अपने बाडे में चली गई। ये कल्पना कर लीजिये हैगौ ना चित्तर पूरौ। राजा बाकी बातैं सुनकर समझगौ कि आज तेनालीराम नै उस दिन की बात को जबाब दियौ है।